सह की सार सुहागनि जानै ।। तजि अभिमान सुख रलीआ मानै ।।
तन मन देए न अन्तर राखै ।। अवरा देख न सुनै अभाखै ।।१।।
पति-परमेश्वर का मर्म ( कद्र ) कोई सुहागिन ही जानती है । वह अपने प्रियतम के साथ सुखपूर्वक रंग-रलियाँ मनाती है । तन-मन अपने प्रियतम को समर्पित कर देती है । अपने प्रियतम के अतिरक्ति किसी अन्य की ओर न कभी देखती है और न ही किसी अन्य की बात सुनती है ।
सो कत जानै पीर पराई ।। जा कै अंतर दर्द न पाई ।। रहाउ ।।
जिस जीव-स्त्री ने कभी अपने प्रियतम के वियोग का दर्द अनुभव नहीं किया वह भला किसी अन्य विरहिणी की पीड़ा को कैसे समझ सकती है ?
दुखी दुहागन दुइ पख हीनी ।। जिनि नाह निरंतर भगत न कीनी ।।
पुर सलात का पंथु दुहेला ।। संग न साथी गवन इकेला ।।२।।
जिस जीव-स्त्री ने अपने प्रभु प्रियतम की निरंतर भक्ति नहीं की है, वह दु:खी रहती है और अपना लोक-परलोक दोनों को गँवा देती है । यमलोक का मार्ग अत्यन्त कष्ट-प्रद हैं । उस मार्ग में कोई संगी-साथी नहीं होता, जीव को अकेले ही जाना पड़ता है ।
दुखीआ दर्दवंद दर आया ।। बहुत पिआस जबाब न पाया ।।
कहि रविदास सरन प्रभ तेरी ।। जिउ जानहु तिउ करु गति मेरी ।।३।।
गुरू रविदास जी कहते हैं कि हे प्रभु ! मैं दु:खी और दर्द से भरा तुम्हारे द्वार पर अाया हूँ । तुम्हारे दर्शन की मुझे बहुत प्यास है, पर मेरी प्रेम-पुकार का कोई उत्तर नहीं मिला । हे प्रभु ! मैं तो तुम्हारी शरण में आया हूँ जिस तरह उचित हमझें, मेरी मुक्ति करें अर्थात् मेरा उद्धार करें ।
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