नाथ कछुअ न जानउ ।। मन माया कै हाथ बिकानउ ।।१।। रहाउ ।।
हे मेरे स्वामी ! मैं कुछ भी नहीं जानता क्योंकि मेरा मन माया के हाथ बिक गया है ।
तुम कहिअत हौ जगत गुर सुआमी ।। हम कहीअत कलिजुग के कामी ।।१।।
हे प्रभु ! तुम्हें सारे जगत का गुरू और स्वामी कहा जाता है और मैं कलियुग का विषयी कामी कहा जाता हूँ ।
इन पंचन मेरो मन जु बिगारिओ ।। पल पल हरि जी ते अंतर पारिओ ।।२।।
इन पाँचों कामादिक विकारों ( काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ) ने मेरा मन बिगाड़ दिया है और हर पल यह मुझे आपसे दूर करता जर रहा है।
जत देखउ तत दुख की रासी ।। अजौ न पत्याइ निगम भए साखी ।।३।।
मैं जहाँ देखता हूँ, वहाँ दु:खों का ही भण्डार है। सभी धर्म-ग्रन्थ भी यह गवाही दे रहे हैं कि विकारों का नतीजा दु:ख है, फिर भी मेता मन नहीं मानता ।
गोतम नारि उमापति स्वामी।। सीस धरनि सहस भग गांमी ।।४।।
हे प्रभु ! विषय-विकारों में फँसकर गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या पत्थर बन गई । उसको भोगने वाले इन्द्र की देह पर हज़ारों चिन्ह बन गए एवं पार्वती के स्वामी शिवजी के हाथों से ब्रह्माजी का सिर काट दिया गया ।
इन दूतन खलु बधु कर मारिओ ।। बडो निलाजु अजहू नही हारिओ ।।५।।
माया के इन पाँचों दूतों ने मुझे भी बाँधकर मार दिया है । मैं बड़ा निर्लज्ज हूँ, अभी भी मैंने उनकी संगति करने से हार नहीं मानी है अर्थात् विमुख नहीं हुआ हूँ ।
कहि रविदास कहा कैसे कीजै ।। बिनु रघुनाथ सरन का की लीजै ।।६।।१।।
गुरू रविदास जी कहते हैं कि हे प्रभु ! अब मैं कहाँ जाऊँ ? क्या करुँ? रघुनाथ के अतिरिक्त मैं किसकी शरण लूँ ? अर्थात् परमात्मा की शरण लेकर ही माया के प्रभाव से मुक्त हो सकता है ।
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