रिदै राम गोबिंद गुन सारं ।।१।। रहाउ ।। सुरसरी सलल क्रित बारुनी रे संत जन करत नही पानं ।। सुरा अपवित्र नत अवर जल रे, सुरसरी मिलत नहि आनं ।।१।। तर तारि अपवित्र करि मानीऐ रे, जैसे कागरा करत बीचारं ।। भगति भारउतु लिखीऐ, तिह ऊपरे पूजीऐ करि नमसकारं ।।२।। मेरी जाति कुट बांढला ढोर ढोवंता, नितहि बानारसी आस पासा ।। अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति , तेरे नाम सरणाइ रविदासु दासा ।।३।।१।। |
नागर जनां मेरी जाति बिखिआत चमारं ।। रिदै राम गोबिंद गुन सारं ।।१।। रहाउ ।। हे नगर के लोगो ! यह प्रसिद्ध है कि मेरी जाति चमार है, किन्तु मेरे हृदय में तो राम है और मैं गोविन्द के गुणों का नित्य सिमरन करता हूँ । सुरसरी सलल क्रित बारुनी रे संत जन करत नही पानं ।। सुरा अपवित्र नत अवर जल रे सुरसरी मिलत नहि आनं ।।१।। हे भाई! सन्तजन गंगा-जल से बनाई गई शराब का भी पान नहीं करते क्योंकि वह अपवित्र है, पर यदि शराब या अन्य अपवित्र पानी गंगा जी में डाल दिये जायें तो वह भी गंगा से मिलकर गंगा का ही रूप हो जाता है । तर तारि अपवित्र करि मानीऐ रे जैसे कागरा करत बीचारं ।। भगति भारउतु लिखीऐ तिह ऊपरे पूजीऐ करि नमसकारं ।।२।। हे मानव ! जैसे ताड़ का वृक्ष और उसके पत्ते अपवित्र माने जाते है, क्योंकि उनमें से शराब निकलती है । विचार करने वाले इस से बने कागज को भी अपवित्र मानते हैं । किंतु जब उन पर भगवंत की भक्ति लिखी जाती है, तब वह पूज्य हो जाते हैं और उसे नमस्कार किया जाता है । मेरी जाति कुट बांढला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा ।। अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति तेरे नाम सरणाइ रविदासु दासा ।।३।। गुरू रविदास जी कहते हैं कि मेरी जाति चमड़ा काटने और छीलने वाले चमार की है । मैं नित्य बनारस के आस-पास मरे पशुओं को ढोने वाला हूँ । पर हे प्रभु ! जब से मैं दास तुम्हारे नाम की शरण में आया हूँ, तब से काशी के ब्राह्मण-प्रधान मुझे दण्डवत्-प्रणाम करने लगे हैं । |