पन्ना :९७३-७४
रामकली बाणी रविदास जी की
ੴ सतिगुर प्रसादि ।।
   
पड़ीऐ गुनीऐ नाम सभ सुनीऐ अनभउ भाउ न दरसै ।।
लोहा कंचन हिरन होए कैसे जउ पारसहि न परसै ।।१।।
देव संसै गांठि न छूटै ।।
काम क्रोध माया मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे ।।१।। रहाउ ।।

हम बड कबि कुलीन हम पंडित हम जोगी संनिआसी ।।
गिआनी गुनी सूर हम दाते इह बुधि कबहि न नासी ।।२।।
कहु रविदास सभै नही समझसि भूलि परे जैसे बउरे ।।
मोहि अधारु नाम नाराइन जीवन प्रान धन मोरे ।।३।।१।।

 
पड़ीऐ गुनीऐ नाम सभ सुनीऐ अनभउ भाउ न दरसै ।।
लोहा कंचन हिरन होए कैसे जउ पारसहि न परसै ।।१।।

पढ़ने, विचार करने और प्रभु के समस्त नामों को सुनकर भी ज्ञान व प्रेम स्वरूप परमात्मा का दर्शन नहीं होता ।
गुरू उपदेश के बिना प्रभु-प्राप्ति नहीं होती, जैसे पारस को सपर्श किए बिना लोहे से शुद्ध सोना नहीं बन सकता ।

देव संसै गांठि न छूटै ।।
काम क्रोध माया मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे ।।१।। रहाउ ।।

हे देव ! अज्ञानता के कारण हमारे संशय की गाँठ नहीं खुलती ।
काम क्रोध, माया, अहंकार, ईर्ष्या यह पाँचों विकार मिलकर हमें लूट रहे हैं ।

हम बड कबि कुलीन हम पंडित हम जोगी संनिआसी ।।
गिआनी गुनी सूर हम दाते इह बुधि कबहि न नासी ।।२।।

मैं बड़ा कवि हूँ, मैं कुलीन पंडित हूँ, मै योगी और संन्यासी भी हूँ ।
मैं गुणी हूँ, मैं शुरवीर हूँ और मैं दाता भी हूँ। इस प्रकार की मेरी अहंकार वाली बुद्धि कभी नष्ट नहीं होती ।

कहु रविदास सभै नही समझसि भूलि परे जैसे बउरे ।।
मोहि अधारु नाम नाराइन जीवन प्रान धन मोरे ।।३।।१।।

गुरू रविदास जी कहते हैं कि अहंकार को सभी जीव नहीं समझते इसलिए वे पागलों जैसे भूले हुए हैं ।
मुझे तो नारायण के नाम का ही आधार है जो मेरे जीवन का प्राण और धन है अर्थात् प्रभु-नाम ही मेरा जीवन-प्राण और धन है ।