जे ओह दुआदस सिला पूजावै ।। जे ओह कूप तटा देवावै ।। करै निंद सभ बिरथा जावै ।।१।। साध का निंदक कैसे तरै ।। सरपर जानहु नर्क ही परै ।। १।। रहाउ ।। जे ओह ग्रहन करै कुलखेत ।। अरपै नारि सीगार समेत ।। सगली सिम्रिति सर्वनी सुनै ।। करै निंद कवनै नही गुनै ।।२।। जे ओह अनिक प्रसाद करावै ।। भूमि दान सोभा मंदपि पावै ।। अपना बिगारि बिरांना सांढै ।। करै निंद बहु जोनी हांढै ।।३।। निंदा कहा करहु संसारा ।। निंदक का परगटि पाहारा ।। निंदक सोधि साधि बीचारिआ ।। कहु रविदास पापी नर्क सिधारिआ ।।४।। |
जे ओह अठसठ तीर्थ न्हावै ।। जे ओह दुआदस सिला पूजावै ।। जे ओह कूप तटा देवावै ।। करै निंद सभ बिरथा जावै ।।१।। यदि कोई जीव अड़सठ तीर्थों का स्नान करे, बारह शिवलिंगों की पूजा करे अथवा जीवों की भलाई के लिए कुएँ और तालाब बनाकर दान भी करे, पर यदि वह साधुजनों की निन्दा करता है तो उसका सब पुण्य व्यर्थ चला जाता है । साध का निंदक कैसे तरै ।। सरपर जानहु नर्क ही परै ।। १।। रहाउ ।। साधुजनों का निन्दक भवसागर से पार कैसे हो सकता है ? हे लोगो ! निश्चय ही उसे नर्क में जाना पड़ता है । जे ओह ग्रहन करै कुलखेत ।। अरपै नारि सीगार समेत ।। सगली सिम्रिति सर्वनी सुनै ।। करै निंद कवनै नही गुनै ।।२।। यदि वह सूर्य-ग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में स्नान करे और सोलह श्र्रंगार सहित अपनी स्त्री को भी दान कर दे तथा सभी सत्ताईस ( २७ ) स्मृतियों की कथा अपने कानों से सुने, किन्तु यदि वह साधुजनों की निन्दा करता है तो उसके ये सब गुण व्यर्थ हो जाते हैं । जे ओह अनिक प्रसाद करावै ।। भूमि दान सोभा मंदपि पावै ।। अपना बिगारि बिरांना सांढै ।। करै निंद बहु जोनी हांढै ।।३।। यदि वह अनेक प्रकार के प्रसाद बनवाकर लोगों को भोगन कराए, अपनी भूमि का दान करे और सुंदर मंदिर बनवाकर यश प्राप्त करे अपना काम बिगाड़कर भी दूसरों का कार्य सँवारे, किन्तु यदि वह साधुजनों की निन्दा करता है तो वह अनेक योनियों में भटकता रहता है । निंदा कहा करहु संसारा ।। निंदक का परगटि पाहारा ।। निंदक सोधि साधि बीचारिआ ।। कहु रविदास पापी नर्क सिधारिआ ।।४।। हे संसार के लोगो ! तुम निन्दा क्यों करते हो ? निन्दक का हाल संसार में प्रकट हो जाता है और उसे अपयश प्राप्त होता है । गुरू रविदास जी कहते हैं कि मैंने निन्दक पर खूब अच्छी तरह सोच-विचार किया है कि वह तो सीधा नर्क में ही जाता है । |