एक घरी फुनि रहन न होई ।।१।। इह तन ऐसा जैसे घास की टाटी ।। जल गयो घास रल गयो माटी ।।१।। रहाउ ।। भाई बंध कुट्मब सहेरा ।। ओइ भी लागे काढ सवेरा ।।२।। धर की नारि उरहि तन लागी ।। उह तउ भूत भूत कर भागी ।।३।। कहि रविदास सभै जग लूटिआ ।। हम तउ एक राम कहि छूटिआ ।।४।।३।। |
ऊचे मंन्दर साल रसोई ।। एक घरी फुनि रहन न होई ।।१।। भले ही हमारे ऊँचे महल हों और रसोई भी आलीशान हो, पर मौत हमें इनमें एक पल भी रहने नहीं देती । इह तन ऐसा जैसे घास की टाटी ।। जल गयो घास रल गयो माटी ।।१।। रहाउ ।। यह शरीर तो घास की झोंपड़ी के समान है और मृत्यु के बाद जला दिये जाने पर घास के समान मिट्टी में ही मिल जाता है । भाई बंध कुट्मब सहेरा ।। ओइ भी लागे काढ सवेरा ।।२।। जीवन का अंत होते ही भाई-बन्धु, कुटुम्ब, परिवार तथा सगे-सम्बन्धी इस मृत शरीर को जल्दी से जल्दी बाहर निकालने में लग जाते है । धर की नारि उरहि तन लागी ।। उह तउ भूत भूत कर भागी ।।३।। यहाँ तक कि घर की स्त्री भी जो उसकी छाती से लगी रहती थी, वह भी इस मृत शरीर को देखकर 'भूत-भूत' कहकर भाग जाती है । अगर उसे मृत्यु के बाद वही रूप नजर आ जाएे । कहि रविदास सभै जग लूटिआ ।। हम तउ एक राम कहि छूटिआ ।।४।।३।। सत गुरु रविदास जी कहते हैं कि काल ने इस सारे जगत को लूटा है पर मैं तो राम नाम के सहारे इसके चंगल से छूट गया हूँ । |