प्रेम जाये तउ डरपै तेरो जन ।।१।। तुझहि चरन अरबिंद भवन मन ।। पान करत पायो पायो रामईआ धन ।।१।। रहाउ ।। स्मपति बिपति पटल माया धन ।। ता महि मगन होत न तेरो जन ।।२।। प्रेम की जेवरी बाधिओ तेरो जन ।। कहि रविदास छुटिबो कवन गुन ।। ३।। ४।। |
कहा भयओ-तो क्या हुआ |
छिनु छिनु -छोटे छोटे टुक्डे | अरबिंद - कमल का फुल |
तुझहि चरन अरबिंद - कमल समान तुम्हारे चरण |
भवन - रहने का स्थान | जेवरी- रस्सी |
कहा भयओ जउ तन भयओ छिनु छिनु ।। प्रेम जाये तउ डरपै तेरो जन ।।१।। गुरू रविदास जी प्रभु के प्रति तिव्र एंव अनन्त प्यार की अवस्था का वर्णन करते हुए कहते है कि अगर मेरा शरीर टुकड़े-टुकड़े भी हो जाए तो भी मुझे कोई भय नहीं । मुझे तो केवल इस बात का डर है कि मेरे मन से आपक प्रेम कभी कम न हो । तुझहि चरन अरबिंद भवन मन ।। पान करत पायो पायो रामईआ धन ।।१।। रहाउ ।। हे प्रभु ! तुम्हारे चरण सुन्दर कमल की भाँति हैं और मेरा मन भँवरा रुप होकर उस पर मँडरा रहा है । तुम्हारा नाम रूपी अमृत पान करके मैंने राम रूपी धन प्राप्ति किया है अर्थात् आपको पाया है । स्मपति बिपति पटल माया धन ।। ता महि मगन होत न तेरो जन ।।२।। संपत्ति मानो विपत्ति है और धन-दौलत मानो माया का पर्दा है, पर आपके नाम का आनन्द लेने वाला आपका दास इनमें मस्त ( आसक्त ) नहीं होता । प्रेम की जेवरी बाधिओ तेरो जन ।। कहि रविदास छुटिबो कवन गुन ।। ३।। ४।। गुरू रविदास जी कहते हैं कि प्रभु ! तुम्हारा सेवक आपके प्रेम की डोर से बंध गिया है, अब इस से छूटने को मेरा मन नही करता । |