सतिगुर ज्ञान जानै संत देवा देव ।।१।। संत ची संगति संत कथा रस ।। संत प्रेम माझै दीजै देवा देव ।। रहाउ ।। संत आचरण संत चो मार्ग संत च ओल्हग ओल्हगणी ।।२।। अउर इक मागउ भगति चिंतामणि ।। जणी लखावहु असंत पापी सणि ।। ३।। रविदास भणै जो जाणै सो जाणु ।। संत अनंतहि अंतरु नाही ।।४।।२।। |
माझै-मेरे को | आचरण - करनी, फर्ज | ओल्हग-दास | ओल्हगणी-सेवा | ओल्हग ओल्हगणी - दासों की सेवा | चिंतामणि -मन भावक फल देने वाली मनी | जणी लखावहु -मत दिखाना, मिलवाना | सणि =और | जाणु =समझदार |
संत तुझी तनु संगति प्रान ।। सतिगुर ज्ञान जानै संत देवा देव ।।१।। हे प्रभु ! संत तुम्हारा शरीर अर्थात् साकार रूप है और उनकी संगति ही तुम्हारा प्राण है । सदगुरु के ज्ञान द्वारा मैंने जाना है कि संतजन देवताओं के भी देवता हैं । संत ची संगति संत कथा रस ।। संत प्रेम माझै दीजै देवा देव ।। रहाउ ।। हे देवों के देव प्रभु ! कृपा करके मुझे संतो की संगति, संत-कथा का रस तथा संतो के प्रति प्रेम प्रदान करें । संत आचरण संत चो मार्ग संत च ओल्हग ओल्हगणी ।।२।। हे प्रभु ! मुझे संत-सम आचरण, संत-मार्ग पर चलने की सर्मथ्था तथा संतों के सेवकों की सेवा करने का अवसर प्रदान करें क्योंकि संतो का आचरण और मार्ग सबसे श्रेष्ठ है । अउर इक मागउ भगति चिंतामणि ।। जणी लखावहु असंत पापी सणि ।। ३।। मै तुमसे एक और दान भी माँगता हूँ कि मुझे भक्ति रुपी चिन्तामणि दें और झूठे पापी लोगों ( असंत ) की संगति मुझे कभी भी न कराएं । रविदास भणै जो जाणै सो जाणु ।। संत अनंतहि अंतरु नाही ।।४।। गुरू रविदास जी कहते हैं कि सच्चा ज्ञानी वही है जो यह जानता है कि, संत और अनन्त प्रभु में कोई अंतर नहीं है अर्थात् संत परमात्मा का ही रूप है। |