उदक माहि जैसे बगु धिआनु माडै ॥१॥ काहे कउ कीजै धिआनु जपंना॥ जब ते सुधु नाही मनु अपना॥१॥रहाउ॥ सिंघच भोजनु जो नरु जानै॥ ऐसे ही ठगदेउ बखानै॥२॥ नामे के सुआमी लाहि ले झगरा॥ राम रसाइन पीओ रे दगरा॥३॥४॥ |
कुंच = केंचुली, ऊपरी पतली झिल्ली। बिखु = जहिर। उदक = पानी। माहि = में। बगु = बगला। धिआनु माडै = ध्यान जोड़ता है।1। जपंना कीजै = जाप करते हैं। जब ते = जब तक। सुधु = पवित्र। रहाउ। सिंघच = (सिंह+च) शेर का, शेर वाला, निदर्यता वाला। अैसे = ऐसे (लोगों) को। ठग देउ = ठगों का देवता, बड़ा ठॅग। बखानै = (जगत) कहता है।2। नामे के सुआमी = नाम देव के मालिक प्रभू ने; हे नामदेव! तेरे परमात्मा ने। लाहिले = उतार दिया, खत्म कर दिया है। रे = हे भाई! दगरा = पत्थर (मराठी)। रे दगरा = हे पत्थर चित्त!।3। |
सापु कुंच छोडै बिखु नही छाडै ॥ उदक माहि जैसे बगु धिआनु माडै ॥१॥ साँप केंचुली उतार देता है पर अंदर से जहिर नही त्यागता; पानी में (खड़े हो के) जैसे बगुला समाधि लगाता है (इस तरह अगर अंदर तृष्णा है तो बाहर से भेख बनाने से आँखें बंद करने से कोई आत्मिक लाभ नहीं है)।1। काहे कउ कीजै धिआनु जपंना ॥ जब ते सुधु नाही मनु अपना ॥१॥ रहाउ ॥ हे भाई! जब तक (अंदर से) अपना मन पवित्र नहीं है, तब तक समाधि लगाने व जाप करने का क्या लाभ है? । रहाउ। सिंघच भोजनु जो नरु जानै ॥ ऐसे ही ठगदेउ बखानै ॥२॥ जो मनुष्य जुलम वाली रोजी ही कमानी जानता है, (और बाहर से आँखे बंद करता है, जैसा समाधि लगाए बैठा हो) जगत ऐसे बंदे को बड़ा ठॅग कहता है।2। नामे के सुआमी लाहि ले झगरा ॥ राम रसाइन पीओ रे दगरा ॥३॥४॥ हे नामदेव! तेरे मालिक प्रभू ने (तेरे अंदर से ये पाखण्ड वाला) झगड़ा खत्म कर दिया है। हे कठोर चित्त मनुष्य! परमात्मा के नाम का अमृत पी (और पाखण्ड छोड़)।3।4। |