अंक : 485
आसा॥
 
मनु मेरो गजु जिहबा मेरी काती ॥
मपि मपि काटउ जम की फासी ॥१॥
कहा करउ जाती कह करउ पाती॥
राम को नामु जपउ दिन राती॥१॥ रहाउ ॥

रांगनि रांगउ सीवनि सीवउ ॥
राम नाम बिनु घरीअ न जीवउ॥२॥
भगति करउ हरि के गुन गावउ॥
आठ पहर अपना खसमु धिआवउ ॥३॥
सुइने की सूई रुपे का धागा॥  
नामे का चितु हरि सउ लागा॥४॥३॥

गजु = (कपड़ा नापने वाला) गज़। काती = कैंची। मपि मपि = नाप नाप के। काटउ = मैं काट रहा हूँ। फासी = फाही।1।
कहा करउ = मैं क्या (परवाह) करता हूँ? मुझे परवाह नहीं। पाती = गोत। जाती = (अपनी नीच) जाति।1। रहाउ।
रांगनि = वह बर्तन जिसमें लिलारी कपड़े रंगता है, मट्टी। रांगउ = मैं रंगता हूँ। सीवनि = सिलना, नाम की सिलाई। सीवउ = मैं सिलता हूँ। घरीअ = एक घड़ी भी। न जीवउ = मैं जीअ नहीं सकता।2।
करउ = मैं करता हूँ। गावउ = मैं गाता हूँ। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ।3।
सुइने की सुई = गुरू का शबद-रूपी कीमती सुई। रुपा = चांदी। रुपे का धागा = (गुर शबद की बरकति से) शुद्ध निर्मल हुई बिरती रूपी धागा।4।
मनु मेरो गजु जिहबा मेरी काती ॥ मपि मपि काटउ जम की फासी ॥१॥
मेरा मन गज़ (बन गया है), मेरी जीभ कैंची (बन गई है), (प्रभू के नाम को मन में बसा के और जीभ से जप के) मैं (अपने मन रूपी गज़ से) नाप-नाप के (जीभ कैंची से) मौत के डर की फाही काटे जा रहा हूँ।1।

कहा करउ जाती कह करउ पाती ॥ राम को नामु जपउ दिन राती ॥१॥ रहाउ ॥
मुझे अब किसी (ऊँच-नीच) जाति-गोत की परवाह नहीं रही, क्योंकि मैं दिन-रात परमात्मा का नाम सिमरता हूँ।1। रहाउ।

रांगनि रांगउ सीवनि सीवउ ॥ राम नाम बिनु घरीअ न जीवउ ॥२॥
(इस शरीर) मट्टी (रंगने वाले बर्तन) में मैं (अपने आप को नाम से) रंग रहा हूँ और प्रभू के नाम की सिलाई सी रहा हूँ। परमात्मा के नाम के बिना मैं एक घड़ी भर भी नहीं जी सकता।2।

भगति करउ हरि के गुन गावउ ॥ आठ पहर अपना खसमु धिआवउ ॥३॥
मैं प्रभू की भक्ति कर रहा हूँ, हरी के गुण गा रहा हूँ, आठों पहर अपने पति-प्रभू को याद कर रहा हूँ।3।

सुइने की सूई रुपे का धागा ॥ नामे का चितु हरि सउ लागा ॥४॥३
मुझे (गुरू का शबद) सोने की सुई मिल गई है, (उसकी बरकति से मेरी सुरति शुद्ध-निर्मल हो गई है, ये, जैसे, मेरे पास) चाँदी का धागा है; (इस सुई-धागे से) मुझ नामे (नामदेव) का मन प्रभू के साथ सिला गया है।4।3।