रामा भगतह चेतीअले अचिंत मनु राखसी॥१॥ कैसे मन तरहिगा रे संसारु सागरु बिखै को बना॥ झूठी माइआ देखि कै भूला रे मना॥१॥ रहाउ॥ छीपे के घरि जनमु दैला गुर उपदेसु भैला ॥ संतह कै परसादि नामा हरि भेटुला ॥२॥५॥ |
जि = जो मनुष्य। चीन्सी = पहचानते हैं, जान पहचान डालते है। न भावसी = अच्छी नहीं लगती। भगतह = (जिन) भक्तों ने। अचिंत = चिंता रहित।1। बिखै को बना = विषौ विकारों का पानी (बन = पानीं)।1। रहाउ। दैला = दिया (प्रभू ने)। भैला = मिल गया। परसादि = कृपा से। भेटुला = मिल गया।2। |
पारब्रहमु जि चीन्हसी आसा ते न भावसी ॥ रामा भगतह चेतीअले अचिंत मनु राखसी ॥१॥ जो मनुष्य परमात्मा के साथ जान-पहिचान बना लेते हैं, जिन संत-जनों ने प्रभू को सिमरा है, उन्हें और-और आशाएं अच्छी नहीं लगती। प्रभू उनके मन को चिंता से बचाए रखता है।1। कैसे मन तरहिगा रे संसारु सागरु बिखै को बना ॥ झूठी माइआ देखि कै भूला रे मना ॥१॥ रहाउ ॥ हे (मेरे) मन! संसार-समुंद्र से कैसे पार उतरेगा? इस (संसार समुंद्र) में विकारों का पानी (भरा पड़ा) है। हे मन! ये नाशवान मायावी पदार्थ देख के तू (परमात्मा की तरफ से) टूट गया है।1। रहाउ। छीपे के घरि जनमु दैला गुर उपदेसु भैला ॥ संतह कै परसादि नामा हरि भेटुला ॥२॥५॥ मुझ नामदेव को (चाहे जैसे भी) दर्जी के घर जनम दिया, पर (उसकी मेहर से) मुझे सतिगुरू का उपदेश मिल गया; अब संत जनों की कृपा से मुझे (नामदेव) को ईश्वर मिल गया है।2।5। |