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धनासरी भगत रविदास जी की
ੴ सतिगुर प्रसादि ।।
   
चित सिमरन करउ नैन अविलोकनो,
स्रवन बानी सुजसु पुरि राखउ ।।
मन सु मधुकरु करउ चरन हिरदे धरउ,
रसन अम्रीत राम नाम भाखउ ।।१।।
मेरी प्रीति गोबिंद सिउ जिनि घटै ।।
मै तउ मोलि महगी लई जीअ सटै ।।१।। रहाउ ।।

साधसंगति बिना भाउ नही ऊपजै,
भाव बिन भगति नही होए तेरी ।।
कहै रविदास इक बेनती हरि सिउ,
पैज राखहु राजा राम मेरी ।।२।।२।। 

 

चित सिमरन करउ नैन अविलोकनो स्रवन बानी सुजसु पुरि राखउ ।।
हे प्रभु ! हृदय से मैं तुम्हारा स्मरण, नेत्रों से तुम्हारा दर्शन और कानों से तुम्हारी सुमधुर वाणी सुनकर आनन्द लेता हूँ ।

मन सु मधुकरु करउ चरन हिरदे धरउ रसन अम्रीत राम नाम भाखउ ।।१।।
मैंने अपने मन को भँवरा बनाकर तुम्हारे चरण-कमलों का हृदय में धारण कर लिया है । सदैव अपनी जिव्हा से आपका अमृत भरा राम-नाम उच्चरता हूँ ।

मेरी प्रीति गोबिंद सिउ जिनि घटै ।।
मै तउ मोलि महगी लई जीअ सटै ।।१।। रहाउ ।।

काश ! मेरी प्रीति गोविन्द के प्रति कभी भी कम न हो । मैंने अपना सर्वत्र देकर बड़े महँगे मुल्य पर इस प्रीति को खरीदा है ।

साधसंगति बिना भाउ नही ऊपजै भाव बिन भगति नही होए तेरी ।।

साधु-सन्तों की सतसंगति व ( मन को साधे ) बिना प्रभु के प्रति प्रेम-भाव उत्पन्न नही हो सकता और प्रेम-भाव के बिना प्रभु की भक्ति नहीं हो सकती ।

कहै रविदास इक बेनती हरि सिउ पैज राखहु राजा राम मेरी ।।२।।२।।
गुरु रविदास जी कहते हैं कि प्रभु से मेरी यही विनती है कि मेरा हृदय आपके श्री चरणों से अलग न हो । हे राजा राम ! मेरी लाज रखो जी ।