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राग सोरठि बाणी भगत रविदास जी की
ੴ सतिगुर प्रसादि ।।
   
जब हम होते तब तू नाही अब तूही मै नाही ।।
अनल अगम जैसे लहरि मए ओदध जल केवल जल मांही ।।१।।
माधवे किआ कहीऐ भ्रम ऐसा ।।
जैसा मानीऐ होए न तैसा ।। रहाउ ।।

नरपति एक सिंघासन सोया सुपने भया भिखारी ।।
अछत राज बिछुरत दुख पाया सो गति भई हमारी ।।२।।
राज भुयांग प्रसंग जैसे हहि अब कछु मरम जनाया ।।
अनिक कटक जैसे भूल परे अब कहते कहन न आया ।।३।।
सर्बे एक अनेकै सुआमी सभ घट भोगवै सोई ।।
कहि रविदास हाथ पै नेरै सहजे होए सो होई ।।४।।१।। 

 
जब हम होते तब तू नाही अब तूही मै नाही ।।
अनल अगम जैसे लहरि मए ओदध जल केवल जल मांही ।।१।।

हे प्रभु! जब मुझ में अहंकार था, तब तुम नहीं थे। अब मेरा अहंकार दूर हो गया है।
जैसे हवा के कारण सागर मे बड़ी-बड़ी लहरें उठती हैं, और फिर सागर में ही समा जाती हैं, उनका अलग अस्तित्व नहीं होता । इसी प्रकार आपके बिना मेरा भी कोई अस्तित्व नहीं है ।

माधवे किआ कहीऐ भ्रम ऐसा ।। जैसा मानीऐ होए न तैसा ।। रहाउ ।।
हे प्रभु ! मैं क्या कहूँ? जीव को यह भ्रम है कि यह संसार ही सत्य है किंतु जैसा वह समझ रहा है वैसा नही है, वास्तव में संसार असत्य है ।

नरपति एक सिंघासन सोया सुपने भया भिखारी ।।
अछत राज बिछुरत दुख पाया सो गति भई हमारी ।।२।।

जैसे सिहांसन पर सोया हुआ एक राजा स्वप्न में भिखारी बन जाता है तथा राज्य के होते हुए भी उससे बिछुड़ने का दु:ख प्राप्त करता है, वैसे ही आपसे बिछुड़ कर मेरी दशा हो गई है।

राज भुयांग प्रसंग जैसे हहि अब कछु मरम जनाया ।।
अनिक कटक जैसे भूल परे अब कहते कहन न आया ।।३।।

भ्रम के कारण साँप और रस्सी तथा सोने के गहने और सोने में अन्तर नहीं जाना जाता, किन्तु भ्रम दूर होते ही इनका अन्तर ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार अज्ञानता के हटते ही मैं आत्मा और परमात्मा का मर्म जान गया हूँ । अब तुझमें और मुझमें कोई भेदभाव वाली बात नहीं रही ।

सर्बे एक अनेकै सुआमी सभ घट भोगवै सोई ।।
कहि रविदास हाथ पै नेरै सहजे होए सो होई ।।४।।१।।

स्वामी एक है, और वह अनेक रुपों में सर्वव्यापक है। 'वह' सब प्राणियों के भीतर स्वयं प्रतिष्ठित होकर आनन्द ले रहा है। गुरू रविदास जी कहते हैं कि 'वह' मेरे हाथ से भी अधिक निकट है और बड़ी सहजता से उसकी प्राप्ती हो सकती है ।