अपने छुटन को जतन करहु हम छुटे तुम आराधे ।।१।। माधवे जानत हहु जैसी तैसी ।। अब कहा करहुगे ऐसी ।।१।। रहाउ ।। मीन पकर फांकिओ अरु काटिओ रांघि कीओ बहु बानी ।। खंड खंड कर भोजन कीनो तउु न बिसरिओ पानी ।।२।। आपन बापै नाही कीसी को भावन को हरि राजा ।। मोह पटल सभ जगत बिआपिओ भगत नही संतापा ।।३।। कहि रविदास भगत इक बाढी अब इह का सिउ कहिऐ ।। जा कारनि हम तुम आराधे सो दुख अजहू सहीऐ ।।४।।२।। |
जउ हम बांधे मोह फास हम प्रेम बधनि तुम बाधे ।। अपने छुटन को जतन करहु हम छुटे तुम आराधे ।।१।। हे प्रभु । यदि तुमने मुझे मोह के फन्दे में बाँध रखा है, तो मैंने तुम्हें प्रेम के बंधन में बाँध लिया है । अब तुम अपने छूटने का उपाय करो, मैं तो तुम्हारी आराधना करके सांसारिक बंधनों से मुक्त हो चुका हूं ।। माधवे जानत हहु जैसी तैसी ।। अब कहा करहुगे ऐसी ।।१।। रहाउ ।। हे प्रभु । मेरी प्रेम-भक्ति को तुम जानते हो, फिर भला तुम उस प्रेम से निकलने की व्यर्थ कोशिश क्यों करते हो ? मीन पकर फांकिओ अरु काटिओ रांघि कीओ बहु बानी ।। खंड खंड कर भोजन कीनो तउु न बिसरिओ पानी ।।२।। मछली को पकड़कर उसे काटा जाता है और उसे कई प्रकार से उलट-पलटकर पकाया जाता है । इसके बाद उसके छोटे-छोटे टुकड़े चबा-चबाकर खाने के बाद भी खाने वाले को बार-बार प्यास लगती है । भाव, फिर भी मछली पानी को नही भुलाती । आपन बापै नाही कीसी को भावन को हरि राजा ।। मोह पटल सभ जगत बिआपिओ भगत नही संतापा ।।३।। प्रभु किसी की पैतृक सम्पति नही है । 'वह' हरि राजा तो केवल प्रेम-भक्ति करने वालो के ही वश में है । सारे संसार के ऊपर मोह का पर्दा पड़ा हुआ है, केवल प्रभु भक्तों को यह मोह नही सताता । कहि रविदास भगत इक बाढी अब इह का सिउ कहिऐ ।। जा कारनि हम तुम आराधे सो दुख अजहू सहीऐ ।।४।।२।। सतिगुरु रविदास जी कहते है कि हे प्रभु । मेरे अन्दर तम्हारी भक्ति की बाढ़ आई हुई है, अब मैं यह बात किससे कहूँ? जिस मोह से बचने के लिए मैंने तुम्हारी आराधना की है, क्या मोह का वह दु:ख अब भी मुझे सहना पड़ेगा ? |