मेरा कर्म कुटिलता जन्म कुभांती ।।१।। राम गुसईआ जीअ के जीवना ।। मोहि न बिसारहु मै जन तेरा ।।१।। रहाउ।। मेरी हरहु बिपति जन करहो सुभाई ।। चरण न छाडउ सरीर कल जाई।।२।। कहु रविदास परू तेरी साभा ।। बेग मिलहु जन कर न बिलांबा ।।३।। |
शब्द अर्थ : संगत- संगती । पोच-नीच । सोच-चिन्ता । कुट - टेडी लकीर । कुटिल - चतुर, खोटा । कुभांती - नीच प्रकार का । गुसईआ -( गो - पृथ्वी ) धर्ती के मालिक । जीअ के - जीवन के । हरहु-दुर करो । बिपति - मुसीबत । सुभाई - आच्छी भावना वाला । साभा - शर्रण । बिलांबा - बिलम्ब, देरी । |
मेरी संगत पोच सोच दिन राती।। मेरा कर्म कुटिलता जन्म कुभांती ।।१।। हे प्रभु जी! मेरा भाव सांसारिक जीव की संगत विषय-विकारों के कारण नीच है। यह सोच मुझे दिन रात लगी रहती है । मेरे कुटिल ( बुरे कर्म ) कामों ने मेरा जीवन नीच बना दिया है। राम गुसईआ जीअ के जीवना ।। मोहि न बिसारहु मै जन तेरा ।।१।। रहाउ।। हे मेरे राम! हे धरती के मालिक, हे जीवों को जीवन देने वाले परमात्मा जी मुझे न भुलाइए । मै आप जी का ही दास हूँ । मेरी हरहु बिपति जन करहो सुभाई ।। चरण न छाडउ सरीर कल जाई।।२।। परमात्मा जी मेरा जन्म-मरण रूप विपदा दूर करें। मुझ दास को यह स्वभाव प्रदान करें कि हर हाल में मै आप की भजन वंदगी न त्यागू । कहु रविदास परू तेरी साभा ।। बेग मिलहु जन कर न बिलांबा ।।३।। सतगुरु जी प्रभु के आगे निवेदन करते हैं कि हे प्रभु जी ! मैं आप जी की शरण में आया हूँ, आप जी मुझे जल्दी आकर दर्शन दें और बिलंभ न करें जी । |