कनक कटिक जल तरंग जैसा ॥ १ ॥ जउपै हम न पाप करंता अहे अनतां ॥ पतित पावन नाम कैसे हुंता ॥१॥ रहाउ ॥ तुम्ह जो नाइक आछो अंतरजामी ॥ प्रर्भ ते जनु जानीजै जन ते सुआमी ॥२॥ सरीरु आराधै मो कउ बीचार देहु॥ रविदास सम दल समझावै कोऊ ॥३॥ |
तोही मोही - तुम्हारे मेरे बीच में । मोही तोही - मेरे तुम्हारे बीच में । कनक - सोना । कटिक - कडे, कंगन । जल तरंग-पानी की लेहरें । १। जीऊ पै - आगर । न करंता - नही करते । अहे अनंता - हे अनंत प्रभु । पतित-वीकारी, नीच । पावन - पवित्र करने वाला । पतित-पावन - पापीओं को पवित्र करने वाला । नाइक-नायक-नेता, तारनहार । आछो - है । प्रर्भ ते - प्रभु से । जनु - सेवक, नोकर । जानीजै - पहचाना जाता है । जन ते - सेवक से ।२। सरीरु आराधै - शारीर प्रभु सिमरन करे । मो कउ - मेरे को । बीचार देहू - समझा दो । सम दल - सब जीवों में व्यापक प्रभु । कोऊ - कोई संत जन ।३। |
तोही मोही मोही तोही अंतर कैसा ॥ कनक कटिक जल तरंग जैसा ॥ १ ॥ हे प्रमात्मा आप की मेरे से, मेरी आप से कोई दुरी नही, जैसे सोने के कडे की सोने से व पानी से पानी की लेहरों की दुरी ( एक दुसरे में समाये हुऐ हैं ) ।१। जउपै हम न पाप करंता अहे अनतां ॥ पतित पावन नाम कैसे हुंता ॥१॥ रहाउ ॥ हे वेअंत प्रभु जी ! अगर हम जीव पाप न करते तो तुम्हारा नाम पतित पावन केसै होता ।१। रहाऊ। तुम्ह जो नाइक आछो अंतरजामी ॥ प्रर्भ ते जनु जानीजै जन ते सुआमी ॥२॥ हे हमारे मन की जानने वाले प्रभु ! तुम जो हमारे मालक हो - अपने पतित-पावन नाम की लाज रखो । मालिक को देख कर पहचान लिआ जाता है कि इन का सेवक केसा है, सेवक से मालिक की परख हो जाती है ।२। सरीरु आराधै मो कउ बीचार देहु॥ रविदास सम दल समझावै कोऊ ॥३॥ मेरे को यह ज्ञान दो कि जब तक इस शारीर में प्राण है, में तुम्हारी अराधना करता रहूँ , यह भी क्रिपा करो कि रविदास को कोई संत जन यह समझा दे कि तमु सर्व-विआपक हो ।३। |